Periods : बदलें पीरियड्स को ले कर दकियानूसी सोच
periods को ले कर महिलाओं को नीचा दिखानेवाले बयानों की भी कमी नहीं है। सोच में जो बदलाव आ भी रहा है, तो उसकी रफ्तार काफी धीमी है।
पीरियड्स का मामला पिछले दिनों काफी गरम हुआ था, जबर्दस्त बहस छिड़ी थी। फिल्म ‘एक्ट्रेस जरीन खान ने कहा था कि पीरियड्स के दौरान उनको कभी काम से छुट्टी लेने की जरूरत नहीं पड़ी। यह एक सामान्य बात है, इसे सोसाइटी ने बेवजह इतना बड़ा इशू बना दिया है। करीना कपूर ने इसे एकदम सामान्य बात माना। उनके लिए यह कोई छिपानेवाली बात नहीं है। लड़कियों को पहले से इसके बारे में जानकारी होने पर जोर देती हैं, क्योंकि उनको स्कूल कैंटीन में अचानक पीरियड्स होने से तुरंत हॉस्टल जा कर कपड़े बदलने पड़े। उनके कपड़ों में धब्बे पड़ गए थे। पहले से जानकारी होती, तो ऐसा ना होता। ये सारे पीरियड्स को ले कर दिए गए प्रोग्रेसिव विचार हैं।
वहाँ धर्मगुरु स्वामी कृष्ण स्वरूप दास के इस कुरूप बयान पर गौर करें कि मह के दौरान खाना बनानेवाली स्त्री अगले जन्म में ‘बिच’ होगी और उसके हाथ से बना खानेवाला आदमी बैल बनेगा। यानी हम जहां से चले, वहीं पहुंच गए। समाज में पीरियड्स को ले कर पॉजिटिव बदलाव आ रहा है, हमारी यह सोच कहीं खामख्याली तो नहीं है, वरना क्यों आज तक सैनिटरी नैपकिन काले पॉलिथिन में पैक करके दिया जाता। गृहिणी नीना टंडन मानती हैं कि पीरियड्स की ले कर धारणा तो बदली है। इसे बदलने में सैनिटरी नैपकिन को हर महिला के लिए उपलब्ध करानेवाले मुरुगनाथम का बड़ा हाथ है। उन पर ही पैड मैन फिल्म बनी। उसे राष्ट्रीय पुरस्कार भी मिला। पहले के समय में कुंआरी लड़की उसकी मां हो पा बुआ, पीरियड्स समय में वे रसोई में कदम नहीं रख सकती थीं। अचार को हाथ लगाने का मतलब उसका सड़ जाना तय था। पूजापाठ का तो सवाल नहीं था। यह सोच आज भी कायम है।
पीरियड्स एक शारीरिक स्थिति है। इसे इंसान ने नहीं बनाया, पर कुप्रथा का रूप जरूर दे दिया। पुराने समय में महिला की इन दिनों आराम देने के लिए भर की बड़ी-बुजुर्ग महिलाओं ने यह प्रथा बनायी होगी। लेकिन अब पीरियड्स को ले कर जिस तरह के पोंगापंथी और अपमानजनक बयान आ रहे हैं, वे उन लोगों के मानसिक रूप से बीमार होने की और इशारा करते हैं। पीरियड्स के दिनों में खाना बनाने, अचार जूने या पति के साथ होने पर अगले जनम में मिलने वाली जाएं इन धर्मगुरुओं द्वारा खातों का बनाया हुआ पुलाव है, जिसे वे बना खा और परोस रहे हैं। अगला जनम किसने देखा है? पढ़ी-लिखी, फैशनपरस्त महिलाएं भी इस मामले में कई बार कूदमगज निकलती हैं। उनकी पीरियड्स को ले कर सोच दकियानूसी है, जिससे ना तो उनका मेकअप मेलखाता है और ना ही कपड़े तीज-त्योहार, पूजापाठ में अलग बैठ जाएंगी। इससे बेहतर है, नहीं थी कर काम में लगा जाए। ऐसी सोच का असर उनकी सेहत पर यह पड़ता है कि वे अपनी पीरियड्स से जुड़ी परेशानियों को शेअर नहीं करता। मर्ज बढ़ता जाता है।
एजुकेटेड, नौकरीपेशा 28 साल की कृति मिश्रा की शादी ऐसे परिवार में हुई, जहां पीरियड्स के दौरान छुआछूत एक रुदि की तरह कायम था सास अमेरिका में बसे बेटे के पास बहू की डिलीवरी के समय गयी हुई थीं। कृति ने वसंत पंचमी के दिन अपनी नहायी-धोयी 17 साल की ननद को मीठे चावल का भोग लगाने के लिए प्लेट पकड़ा दी। ननद यह कहते हुए बिदक गयी कि नहीं भाभी, मैं डाउन हूं। कृति ने उसके मुंह में दो तुलसी की पत्तियां डाली और कहा, “जाओ, भोग लगाओ, देवी सरस्वती भी स्त्री हैं, कुछ नहीं होता। जो पाप लगना होगा, मुझे लगेगा।” कृति बताती हैं, “कम उम्र होने की वजह से ननद ने झिझकते हुए मेरी बात मान ली, पर अब पीरियड्स को ले कर उसमें कोई गिल्ट नहीं है।” वहाँ 13-14 साल की 2 बेटियों की मां मीनाक्षी उनियाल बेटियों के पीरियड्स को ले कर असमंजस में थीं कि कैसे बताएं कि पीरियड्स भी होते हैं और उस बीच भगवान के कमरे से दूर रहना है। हिम्मत करके बेटियों को बिठा कर समझाना शुरू किया, तो वे लापरवाही से बोली, “हमें पता है, हमारे school में सब बताया जाता है।”
इस बदल रही सोच के बावजूद महिलाओं के अपने दिमाग में पीरियड्स को ले कर इतना वहम है कि वे मंदिर जाना तो दूर, उन दिनों भगवान की हाथ जोड़ते हुए भी घबराती हैं। ‘तर्क वही पुराना कि 3 दिन औरत को आराम मिल जाता है। दावा करती हैं कि पीरियड्स के दिनों में मुरब्बा धूप में रखने के लिए ही हुआ, पर बाद में जब खोला तो खराब हो गया था। कुछ तो सचाई है।’ पीरियड्स के दौरान खुद के अपवित्र होने की भावना आज भी उनके मन में गहरी बैठी है। भुज में सहजानंद गर्ल्स इंस्टिट्यूट तब चर्चा में आया, जब पीरियड्स की जांच के लिए 60 छात्राओं को कपड़े उतारने के लिए मजबूर किया गया। यहां पीरियड्स के समय लड़कियाँ परिसर में मौजूद मंदिर में नहीं जा सकतीं और मेस में दूसरी छात्राओं के साथ खाना नहीं खा सकर्ती। यह इंस्टिट्यूट विच और बैल की फिलॉसफी झाड़नेवाले कृष्ण स्वरूप दास का है। आज के जमाने में ऐसी सोच हैरानी में डालनेवाली है। हिंदुस्तान में कुल आबादी की करीब 30 प्रतिशत महिलाएं पीरियड्स से गुजर रही हैं। हर घर में महिलाएं हैं, जिनके बिना काम नहीं होता, पर पीरियड्स होना गुनाह से कम नहीं है, छुपे शब्दों में पीरियड्स होने की बात कही जाती है। मसलन आज ‘सिर धोने पर हैं’, ‘एमसी हैं ‘डाउन हैं वगैरह-वगैरह।
अब भी गांवों, छोटे शहरों में 62 प्रतिशत महिलाएं कपड़ा इस्तेमाल करती हैं। कपड़े का पाउच बना कर उसमें राख और बालू भर कर पैड की तरह करनेवाली महिलाएं भी हैं, जो अकसर बीमार रहती हैं। वे सच में मानती हैं कि पीरियड्स के समय वे अशुद्ध और अपवित्र हो जाती हैं। उस दौरान नहाने से बचती हैं, क्योंकि दादी ने या मां ने कहा था कि ‘उस समय रसोई, पति और पानी के पास नहीं जाना। उन्होंने पोती या बैटों के मन में कमतर होने का बीज बो दिया, जबकि पीरियड्स एक कुदरती प्रक्रिया है, फिर इतना हल्ला क्यों? विश्व स्वास्थ्य संगठन की एक रिपोर्ट बताती है कि भारत में 27 फीसदी सर्वाइकल कैंसर के मामलों के पीछे सबसे बड़ी वजह माहवारी के दौरान साफ सफाई ना रखना है।
Periods से जुड़े मिथ
● इन दिनों नहाएं नहीं रही मुद्रा और कड़ी नहीं खानी है, नुकसान पहुंचेगा। जबकि साफ-सफाई जरूरी है।
● एक्सरसाइज योग नहीं करना। उस दौरान स्कू नहीं जाता। जबकि पीरियड्स के दौरान हस्की-फुल्की एक्सरसाइज की जा सकती है। ऐसी कोई रोक नहीं है।
● अशुद्ध होने के कारण इन दिनों पूजापाठ, व्रत, मंदिर जाने से बचे। पूजापाठ करेंगी, तो भी कोई हर्ज नहीं होगा। • रसोई में नहीं जाना है। पुरुषों के लिए खाना नहीं बनाता है। अचार को हाथ नहीं लगाना, वरना सड़ जाएगा। आजमा लें, ऐसा नहीं होता।
● माहवारी के तीसरे दिन बाल धो कर शुद्ध होना है। पौधों में पानी नहीं देना है। पौधे बच्चों जैसे हैं, उनको नियमित पानी देना पाप कैसे हो गया।
पढ़ी-लिखी, फैशनपरस्त महिलाएं भी इस मामले में कुढ़मगज निकलती हैं। पीरियड्स से जुड़ी उनकी दकियानूसी सोच से ना तो उनका मेकअप मेलखाता है और ना ही कपड़े।
ऐसा नहीं है कि महिलाओं ने इसका विरोध नहीं किया हो। कहाँ लैप्पी टू क्लोड कैंपेन चला, तो कहीं पैड्स अगेंस्ट मुहिम छिड़ी जो महिलाएं खुद को प्रोग्रेसिव श्रेणी में रखती हैं, वे एकदम अति पर पहुंच जाती हैं। माहवारी में सबरीमाला मंदिर में जाने की जिद कुछ ऐसी हो है। एक महिला ने तो पीरियड्स से जुड़ी रूढ़ियों को तोड़ने के नाम पर तुलसी के पौधे को पीरियड्स के फ्लूइड से सोचना शुरू कर दिया। इसमें प्रगतिशीलता क्या है। वैसे अब तो छोटे परिवारों और शहरों में मजबूरी कुछ ऐसी हो गयी है कि चाह कर भी वैसी रूढ़ियों पर नहीं चला जा सकता। अगर पति-पत्नी दोनों नौकरीपेशा है, तो कौन खाना बनाएगा आदमी तो बनाने से रहे। बूढ़ी सास पर खाना बनाने की जिम्मेदारो कैसे डाली जा सकती है, वरना कुछ परिवारों में तो पीरियड्स के दौरान महिला का कमरा, बरतन सब अलग कर दिए। जाते थे। तेइस परसेंट लड़कियों का तो पीरियड्स के बाद स्कूल जाना ही बंद करा दिया जाता है। आखिर हम कहां जा रहे हैं, दकियानूसी सोच और प्रोग्रेसिव समझ के बीच उलझने के बजाय क्या इनसे बाहर आना ठीक नहीं रहेगा।
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